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अड़बड़–सड़बड़
हड़बड़–दड़बड़ सोचा मैंने
ताकवि हो इक बड़सर–बड़गड़
ना छंद मंद, चौपाई तिपाई,
करूँ श्लोक की खूब खिंचाई,
मति का भान हो थोड़ा–थोड़ा
यहीं की ईंट, वहीं का रोड़ा
मानदंड हो दंडमान, और
अलंकार हो जाए भगोड़ा
सुना आपने पादकसम्जी?
सोचा मैंने...
अड़बड़–सड़बड़ स्वाद हो ऐसा
जुहू बीच के खोमचे जैसा
हो उपमा चटनी और रसम
हम खाएँ जलेबी के संग–संग
फिर आप कहेंगे कैसे–कैसे
लो, बोलू हूँ मैं–कुछ यों जैसे
लड़की है कितनी नमक़ीन
देखो बज गए पौने तीन
लगता फिर नहीं आवेगा
मनवा फिर चटकावेगा
इंतज़ार में भयी छुहारा
भँवरा आख़िर है बंजारा।
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