अनुभूति में
विजय ठाकुर की रचनाएँ-
हास्य
व्यंग्य में—
अड़बड सड़बड़
गुफ्तगू वायरस इश्क से
मेघदूत और ईमेल
स्वर्ग का धरतीकरण
छंदमुक्त में—
अपना कोना
काहे का रोना
कैक्टसों की बदली
तेरी तस्वीर
तीजा पग
दे सको तो
पीछा
प्रश्न
बचपन जिंदा है
मवाद
रेखा
वर्तनी
छोटी कविताओं में-
चकमा
जनता का प्यार
समानता
संकलन में-
गुच्छे भर अमलतास–
ग्रीष्म आया
तुम्हें नमन–
आवाहन
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काहे का रोना
चाहे जितनी बातें कर लो
लंबी चौड़ी डींगें हाँको
यह तो एक हक़ीक़त है
सबको बूढ़ा होना है
फिर काहे का रोना है
मैं भी इक दिन बूढ़ा हूँगा
जैसे घर का कूड़ा हूँगा
जीवन एक झमेला होगा
फिर भी हमको जीना होगा
जब सबको बूढ़ा होना है
तो फिर काहे का रोना है
लेकिन हार न मानेंगे हम
चाहे कोई कुछ भी कह ले
भले दाँत और बाल न होंगे
उभरे उभरे गाल न होंगे
पर जीवन तो इक सोना है
फिर काहे का रोना है
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