अनुभूति में
विजय ठाकुर की रचनाएँ-
हास्य
व्यंग्य में—
अड़बड सड़बड़
गुफ्तगू वायरस इश्क से
मेघदूत और ईमेल
स्वर्ग का धरतीकरण
छंदमुक्त में—
अपना कोना
काहे का रोना
कैक्टसों की बदली
तेरी तस्वीर
तीजा पग
दे सको तो
पीछा
प्रश्न
बचपन जिंदा है
मवाद
रेखा
वर्तनी
छोटी कविताओं में-
चकमा
जनता का प्यार
समानता
संकलन में-
गुच्छे भर अमलतास–
ग्रीष्म आया
तुम्हें नमन–
आवाहन
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गुफ़्तगू वायरसे इश्क
से
कई बार अपडेट किया था
अपने एँटी वायरस इंजन को
और कहा था खुद से मैने
बस अब कोई खतरा नहीं
कभी यकीन भी हो चला था
दिल के वायरस प्रूफ होने का
पर हुज़ूर बला टलती कहाँ से
और वह भी इतनी आसानी से!
बड़ा ही ढीठ था कमबखत
आ जाता बार बार मुँह बाए
पूछ बैठता फिर वही सवाल
भई कैसा सॉफ्टवेयर है तुम्हारा
तुम्हें कुछ कुछ कभी नहीं होता?
कहा होता क्यों नहीं ? डरता हूँ पर
हुआ तो था पहले भी
तुम्हारा ही दंश था
भूल गए क्या अपनी काट ?
समुदी ज्वार की तरह
इंस्टेंट प्यार की तरह
इजहार भी कर डाला था
लेकिन फिर नतीज़ा?
उसके हिस्से की मोहब्बत
डाउनलोड करने के चक्कर में
अपना सिस्टम हैंग हो जाता
री बूट करता फिर हैंग हो जाता
अब तक पड़ा है हैंग होकर जाने कब होगा फंक्शनल!
8 अक्तूबर २००२
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