यह ज़मीं प्रिय वो नहीं
यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था
यह नहीं सरिता सजल जिसके लिए पर्वत गला था।
बेच आया छंद कितने, जीत आया द्वंद्व कितने
पर विजय केशव न ये जिसके लिए राधेय छला था।
यह ज़मीं प्रिय वो नहीं …
मैं रहा मैं और मेरा है मुझे अब तक ममेतर
यह नहीं वह चेतना जिसके लिए तिल-तिल जला था।
देख नन्हें श्रमिक का दुख हाय! मैं हतप्रभ खड़ा हूँ
सीमित यहीं संवेदना जिसके लिए कवि-पथ वरा था?
क्यों नहीं मैं सूर्य-सा जल
या धवल हिम-खंड-सा गल
इस जगत के काम आता
अंकुर उगाता!
या दलित की आँख में ढल
आह बन कर निर्धनों की
संग उनके गीत गाता
अर्थ पाता!
जब भी उठा था दान को किसने पकड़ कर
कृपण कर मेरा धरा था?
ये ही भविष्यत् का सुख न जिसके लिए संचय करा था?
यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था
यह नहीं वह बीज जिसके लिए गुल हँस-हँस झरा था।
और लोगों पे मलूँ क्यों
अपने हृदय की लीक कालिख
काश! इसको धो मैं पाता
गंगा नाहाता!
या कि बन कार्बन सघन
कोयले से ले आतिश जलन
पाषाण से मैं घात पाता
चमक जाता!
"किस्से कहानी की ये बातें, सत्य ये होतीं नहीं
हैं''
क्या झूठ थे वे सब कथानक जिनको बचपन में सुना था?
यह ज़मीं प्रिय वो नहीं जिसके लिए घर से चला था
यह नहीं उपवन हरित जिसके लिए मरुथल जला था।
काश! एक दिन वन्दना में
ईश का कर ध्यान पाता
खुद को मिटाता
जी मैं जाता!
३ नवंबर २००८ |