खोटा सिक्का
मैं एक खोटा सिक्का हूँ
कई हाथों से गुज़रा हूँ
किसी ने देख ना देखा
किसी ने जान कर फेंका
कभी मुजरा-कव्वाली में
कभी पूजा की थाली में
कभी लंगडे की झोली में
कभी ठट्ठा ठिठोली में
कभी मजदूर हाथों में
कभी मजबूर रातों में
जिये बस खोट ही मैंने
दिये बस चोट ही मैंने
आज नन्हें हाथ में
आ कर के ठिठका हूँ
इसे भी धूल झोंकूँ या
कह दूँ कि खोटा हूँ
"माँ देख इसको भी
लगी है चोट माथे पे
हो गया कितना गन्दा ये
इसे भी साथ नहला दे।"
मुझे धो पोंछ कर बच्चे ने
तकिये के तले डाला
कभी यारों को दिखलाया
कभी सहलाया, सँभाला
अब उसके साथ सोता हूँ
उसे गा कर जगाता हूँ
मैं लोहे का इक टुकड़ा हूँ
दुस्वपनों को भगाता हूँ।
३ नवंबर २००८ |