सूरज में गरमी ना हो
सूरज में गरमी ना हो
तो आशा की चादर बुनो
अपनी हँसी को नहीं
ज़ख़्मों को अपने ढको।
देरी करोगे अगर
दिन आगे निकल जाएगा
मिट्टी में बोएगा जो
वो ही फसल पाएगा।
ये बच्चे जो राहों में हैं
समय की अमानत हैं ये
बिखरे जो ये टूट कर
गुलिस्ताँ पे लानत है ये।
बोली को जुबाँ से नहीं
दिल से निकल आने दो
जो जाता है सब छोड़ कर
उसको रोको ना तुम जाने दो।
सूरज में गरमी ना हो
तो आशा की चादर बुनो
जो तेरा है लौट आएगा
उसकी राहों से काँटें चुनो।
9 फरवरी 2005
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