मैं हूँ वो प्यास
मैं हूँ वो प्यास जो अनबुझी रह गई
क्लिष्ट वो शब्द जो अनकहा रह गया
मैं वो पाती जो बरसात में भीग कर
इतना रोई कि सब अनपढ़ा रह गया।
मैं हूँ रश्मिरथी की त्रिभुज-सी किरण
चूम कर भूमि, रथ फिर चढ़ा ना गया
मैं कभी वाष्प बन, फिर कभी मेह बन
इतना घूमी कि मोती गढ़ा ना गया।
मैं वो धुंधली परी, कल्पना से भरी
जिसके पंखों को ले कर समय उड़ गया
नीले घोड़े पे आया था छोटा कुँवर
पर उबलती नदी से परे मुड़ गया।
मैं वो यौवन जो अभाव से ब्याह गई
मैं वो बचपन जो पूरा जिया ना गया
तृष्णा और तृप्ति के मध्य में मैं खड़ी
एक अरदास मन से पढ़ा ना गया।
मैं वो जोगन जो मेंहदी रचे पाँव ले
राजघर तो चली पर रहा ना गया
मीरा की चाह में, राणा की आह! में
मैं वो दोहा जो पूरा कहा ना गया।
३ नवंबर २००८ |