तीन छोटी रचनाएँ
कब आओगे नगरी मेरी
कल बड़े दिनों के बाद सजन
आँखों में ना डाला अंजन
सोचा वंशीधर आएँगे
तो पग काले हो जाएँगे।
फिर रात, प्रात:, संध्या बीतीं
आहट से रही ह्रदय सीती
कब आओगे नगरी मेरी
आँखे सूनी, देह की देहरी।
ये गीत तेरा
आज उसने गीत तेरा ये पढ़ा शत बार होगा
मिली होगी इक सहेली नाम जिसका प्यार होगा।
आइने को परे रख तेरी ग़ज़ल में देखा होगा
जुल्फ फिर सँवारी होगी, तीर तिरछा फेंका होगा।
छाप नीले अक्षरों में, अधर रख मुस्काया होगा
घर की गली के पास ही फेंक कर बिखराया होगा।
वहीं कोई रात-रानी सोचे ये चन्दा चितेरा,
तारकों को चुन निशा के गीत में फिर लाया होगा।
बोलो कहाँ उपजायी थी
जलपाइगुडी के स्टेशन पे तुमने थामा था हाथ मेरा
राइन नदी में बतखों ने फिर डुब-डुब डुबकी खाई थी
सिंगापुर के सूरज को एक हाथ बढा कर ढाँपा था
आल्पस् की अलसाई सुबह फिर थोड़ा सा गरमाई थी।
फिर भावों को तुम तोल रही हो देश-काल के पलड़ों
में?
ये कह स्नेह-सिक्त माटी हरियल मलमल मुस्काई थी
जो भाप हवा में जुड़ता है, पा वेग पवन का उड़ता है
वो कहता नहीं कभी बूँदों से 'सखि बोलो कहाँ उपजायी थी?'
३ नवंबर २००८ |