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ये ही दिन
बाकी थे धोखा, झूठ,
फरेब, ढोंग, मक्कार सयानापन
इन से भरा हुआ है सारे
रिश्तों का आँगन
नूतन पोशाकों में सच के
दुश्मन बाकी थे
शायद मुझे देखने को ये ही
दिन बाकी थे
सुबह, शाम,
दोपहर, रात, विश्वासों की फाँसी
हर बयान सरकारी,
भाषाओं से बदमाशी
शायद, किंतु, परन्तु, बशर्ते,
मुमकिन बाकी थे
शायद मुझे देखने को ये ही
दिन बाकी थे
जीवन की
बगिया में घाटे ही घाटे निकले
फूल नहीं आए पौधों में
बस काँटे निकले
अपने हिस्से में बस
लालन पालन बाकी थे
शायद मुझे देखने को ये ही
दिन बाकी थे
१५ दिसंबर २००८ |