अनुभूति में
वीरेंद्र जैन
की रचनाएँ -
नए गीत-
जाने कितने साल हो गए
देखने को
बनवासों का कोलाहल है
मौत मुझको दे दे मोहलत
ये ही दिन बाकी थे
लिप्साओं ने सारे घर को
गीतों में
अब निर्बंध हुआ
कोई कबीर अभी ज़िंदा है
चाँदी की जूती
अंजुमन में-
किताबें
छंदमुक्त में-
नया घर
हास्य व्यंग्य में-
आमचुनाव में
क्योंजी आप कहाँ चूके?
खूब विचार किए
नाम लिखा दाने दाने पर
बेपेंदी के लोटे
मुस्कान ये अच्छी नहीं
ये उत्सव के फूल
हम चुनाव में हार गए
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नया घर
कटे जंगल से हुई खाली जगह पर
गगनचुम्बी इमारत उग गई है
उसीकी शाख पर लटका हुआ हूँ
परिन्दे जैसी हालत बन गई है
ये छत्ता है शहद की मक्खियों का
सभी के अपने घर हैं एक जैसे
हमारी छत पर उनका फर्श होता
रहा करता हूँ मैं औरों की छत पर
मुझे दिखता नहीं पर सुन रहा हूँ
किसी की फर्श पै चलने की आहट
कोई मेरी भी आहट सुनता होगा
नहीं रहता है मुझको ध्यान इसका
ये बिल्कुल जेल जैसी कोठरी है
सिपाही भी हम, कैदी भी हम हैं
खुद अपना ताला बन्द करते खोलते हैं
नहीं खोला मगर पर दिल का ताला
किसी का गम हो या घर में खुशी हो
मैं खट से अपनी खिड़की बन्द करता
लगा रक्खी है इक टीवी की खिड़की
जहाँ से सारी दुनिया देखता हूँ
हँसी भी है खुशी भी
उदासी भी है उसमें और गम हैं
उछलती कूदती प्यारी तितलियाँ
हज़ारों फूल जंगल पेड़ आते
इशारों पर लता जी गा रही हैं
कहीं शहनाई की धुन आ रही है
हुआ है हादसा लाशें बिछी हैं
मैं बैठा-बैठा खाना खा रहा हूँ
कहीं पर गोलियाँ चलने लगी हैं
इधर मैं जूतियाँ चमका रहा हूँ
मेरा घर मेरी बीबी मेरे बच्चे
सभी के अपने अपने बन्द कमरे
सभी के अपने गद्देदार बिस्तर
वहां मोबाइल से संवाद चलता
सभी की गोद में लैपटाप बैठा
लगे बच्चा नहीं यह बाप बैठा
२
जून २००८ |