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अनुभूति में वीरेंद्र जैन की रचनाएँ -

नए गीत-
जाने कितने साल हो गए
देखने को
बनवासों का कोलाहल है
मौत मुझको दे दे मोहलत
ये ही दिन बाकी थे
लिप्साओं ने सारे घर को

गीतों में
अब निर्बंध हुआ

कोई कबीर अभी ज़िंदा है
चाँदी की जूती

अंजुमन में-
किताबें

छंदमुक्त में-
नया घर

हास्य व्यंग्य में-
आमचुनाव में
क्योंजी आप कहाँ चूके?
खूब विचार किए
नाम लिखा दाने दाने पर
बेपेंदी के लोटे
मुस्कान ये अच्छी नहीं
ये उत्सव के फूल
हम चुनाव में हार गए

  देखने को

देखने को
यों बहुत से भीड़-मेले हो रहे हैं
मैं अकेला, तू अकेला
सब अकेले हो रहे हैं

व्यक्ति की दुनिया निरन्तर
और संकरी हो रही है
अब सभी के अलग आँगन
द्वार देहरी हो रही है
और उसमें रात दिन लाखों
झमेले हो रहे हैं
मैं अकेला, तू अकेला
सब अकेले हो रहे हैं

दायरा विश्वास का भी
और छोटा हो रहा है
क्या पढ़ें दिल, जबकि चेहरा जड़
मुखौटा हो रहा है
बस्तियों के लोग
दिन प्रतिदिन बनैले हो रहे हैं
मैं अकेला, तू अकेला
सब अकेले हो रहे हैं

क्या हुआ है
हम भरे समुदाय मैं भटके हुए हैं
आँख में रहते नहीं हैं
आँख में खटके हुए हैं
वासना से भावना के स्वर
कसैले हो रहे हैं
मैं अकेला, तू अकेला
सब अकेले हो रहे हैं

१५ दिसंबर २००८

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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