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उलझन
(पाँच
मुक्तक)सभी संतों ने
सिखलाया, प्रभु का नाम है जपना।
सुनहरे कल भी आएँगे, दिखाते रोज एक सपना।
वतन आजाद वर्षों से बढ़ी जनता की बदहाली,
भले छत हो न हो सर पे, ये सारा देश है अपना।।
कोई सुनता नहीं मेरी, तो गाकर फिर सुनाऊँ क्या?
सभी मदहोश अपने में, तमाशा कर दिखाऊँ क्या?
बहुत पहले भगत ने कर दिखाया था जो संसद में,
ये सत्ता हो गयी बहरी, धमाका कर दिखाऊँ क्या
मचलना चाहता है मन, नहीं फिर भी मचल पाता
जमाने की है जो हालत, कि मेरा दिल दहल जाता
समन्दर डर गया है देखकर आँखों के ये आँसू
कलम की स्याह धारा बनके, शब्दों में बदल जाता
लिखूँ जन-गीत मैं प्रतिदिन, ये साँसें चल रहीं जबतक
कठिन संकल्प है देखूँ, निभा पाऊँगा मैं कबतक
उपाधि और शोहरत की ललक में फँस गयी कविता
जिया हूँ बेचकर श्रम को, कलम बेची नहीं अबतक
खुशी आते ही बाँहों से, न जाने क्यों छिटक जाती
मिलन की कल्पना भी क्यों, विरह बनकर सिमट जाती
सभी सपने सदा शीशे के जैसे टूट जाते क्यों
अजब है बेल काँटों की सुमन से क्यों लिपट जाती
११ जुलाई २०११
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