सारांश
मन-दर्पण को जब-जब देखा,
उलझ गई खुद की तस्वीरें।
चेहरे पे चेहरों का अंतर,
याद दिलाती ये तस्वीरें।।
पात्रों सा निज- रूप सजाता,
रंगमंच जाने से पहले।
प्रति पल रूप बदलता मेरा, और बदलती है तक़रीरें।
निज-स्वरूप की नित तलाश में,
हाथ लिए दीपक मैं फिरता।
सच आँखों का छुप नहीं पाता, लाख करी मैंने तदबीरें।
जान लिया खुद को जिसने भी,
प्रेम-शांति के गीत वो गाया।
फिर भी नहीं बदल पाया है, मानवता की भाग्य-लकीरें।
सुमन के होने का मतलब क्या,
खुशबू ही जब सिमट रही हो।
अर्थ मनुज का व्यर्थ हो रहा, तोड़ जो शेष बची ज़ंजीरें।
16 मई 2006
|