संवाद
काम कितना कठिन है ज़रा सोचना।
गाँव अंधों का हो आइना बेचना।।
गीत जिनके लिए रोज़ लिखता मगर।
बात उन तक न पहुँचे तो कटता जिगर।
कैसे संवाद हो साथ जन से मेरा
ज़िंदगी बीत जाती न मिलती डगर।
बन के तोता फिर गीता को क्यों वाँचना।
गाँव अंधों का हो आइना बेचना।।
बिन माँगे सलाहों की बरसात है।
बात जन तक जो पहुँचे वही बात है।
दूरियाँ कम करूँ जा के जन से मिलूँ
कर सकूँ गर इसे तो ये सौग़ात है।
बिन पेंदी के बरतन से जल खींचना।
गाँव अंधों का हो आइना बेचना।।
सिर्फ़ अपने लिए क्या है जीना भला।
बस्तियों में चला मौत का सिलसिला।
दूसरे के हृदय तार को छू सकूँ
सीख लेता सुमन काश ये भी कला।
आम को छोड़कर नीम को सींचना
गाँव अंधों का हो आइना बेचना।।
9 अगस्त 2006
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