कसक
मंज़िल निश्चित पथ अनजान
चतुराई का क्या अभिमान।
जीवन मौत संग चलते हैं
आगत का किसको है भान।
व्याप्त अंधेरा कम करने को क्षीण ज्योति भी ले आता।
रवि शशि तारे बात दूर की जुगनू भी मैं बन पाता।।
कोई दूर न सभी पास है
कौन आम और कौन ख़ास है।
अपने पराये का अंतर पर
सबसे सबको लगी आस है।
इस उलझन की चिर सुलझन का कोई राह दिखा जाता।
रवि शशि तारे बात दूर की जुगनू भी मैं बन पाता।।
अधिक है आशा शेष निराशा
भौतिक सुख की दृढ़ जिज्ञासा।
तीन भाग से अधिक है पानी
फिर भी क्यों आधा जग प्यासा।
मृगतृष्णा की भाग दौड़ से किसी तरह सब बच जाता।
रवि शशि तारे बात दूर की जुगनू भी मैं बन पाता।।
ज्ञान यहाँ विज्ञान यहाँ है
अच्छाई भी जहाँ तहाँ है।
धर्म न्याय की बातें होतीं
फिर भी सबको त्राण कहाँ है।
क्या रहस्य है इसके पीछे कोई मुझको सिखलाता।
रवि शशि तारे बात दूर की जुगनू भी मैं बन पाता।।
सब मिल सकता जिसकी चाहत
हो कोई क्यों हमसे आहत।
भीड़ तीर्थ में यज्ञ भक्ति में
है मानवता क्यों मर्माहत।
काँटे सुमन संग पलते क्यों कोई भेद बता जाता।
रवि शशि तारे बात दूर की जुगनू भी मैं बन पाता।।
16 फरवरी 2007 |