रोग समझकर
रोग समझकर अपना जिसको अपनों ने
धिक्कार दिया।
रीति अजब कि दिन बहुरे तो अपना कह स्वीकार किया।।
हवा के रुख संग भाव बदलना क्या
इन्सानी फितरत है।
स्वागत गान सुनाया जिसको जाने पर प्रतिकार किया।।
कलम बेचने को आतुर हैं दौलत,
शोहरत के आगे।
लिखना दर्द गरीबों का नित बस बौद्धिक व्यभिचार किया।।
बातें करना परिवर्तन की, समता
की, नैतिकता की।
जहाँ मिला नायक को जो कुछ उसपर ही अधिकार किया।।
सुमन भी उपवन से बेहतर अब दिखते
हैं बाज़ारों में।
काग़ज़ के फूलों में खुशबू क्या अच्छा व्यापार किया।।
१७ अगस्त २००९ |