इंसानियत
इंसानियत ही मज़हब सबको बताते हैं।
देते हैं दग़ा आकर इनायत जताते हैं।।
उसने जो पूछा हमसे क्या हाल चाल है।
लाखों हैं बोझ ग़म के पर मुसकुराते हैं।।
मजबूरियों से मेरी उनकी निकल पड़ी।
लेकर के कुछ न कुछ फिर रास्ता दिखाते हैं।।
खाकर के सूखी रोटी लहू बूँद भर बना।
फिर से लहू जला के रोटी जुटाते हैं।।
नज़रें चुराए जाते जो दुश्वारियों के दिन।
बदले हुए हालात में रिश्ते बनाते हैं।।
दुनिया से बेख़बर थे उसने जगा दिया।
चलना जिसे सिखाया वो चलना सिखाते हैं।।
फितरत सुमन की देखो काँटों के बीच में।
खुशियाँ भी बाँटते हैं खुशबू बढ़ाते हैं।।
9 अगस्त 2006
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