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                    ये अपने पल ये अपनेबेहद अपने पल
 क्यों इतने बेगाने बीते।
 एड़ी से चोटी तक 
                    कैसाटँगा हुआ है
 एक अपरिचय,
 दस्तक देता
 दरवाज़ों पर
 शंकाओं संदेहों का भय,
 भीड़ भरे इस महाद्वीप को
 हम बतौर क्रूसों हैं जीते।
 साँसों का 
                    विनिमयआलिंगन
 और वेदना की
 कुछ बूँदें,
 नर्म छुवन की
 गरमाहट को
 याद करें हम
 आँखें मूँदे,
 हिरनों की छलाँग वाले दिन
 अब अपंग लावारिस रीते।
 छालों भरा सफ़र 
                    एकाकीजुआ ज़िंदगी का है काँधे,
 मन फिर भी
 परिचित आहट के
 इंतज़ार में हिम्मत बाँधे,
 समा गई
 पगध्वनि सुरंग में
 अवसादों के
 बिछे पलीते।
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