| अनुभूति में 
                  रविशंकर की रचनाएँ — नए गीत-अनुवाद हुई ज़िंदगी
 एक विमूढ़ सदी
 खो गई आशा
 गाँव और घर का भूगोल
 जल रहा है मन
 बीते दिन खोए दिन
 हम शब्दों के सौदागर हैं
 अंजुमन में-ग़ज़ल
 कविताओं मेंइस अंधड़ में
 पौ फटते ही
 गीतों में-एक अदद भूल
 गहराता है एक कुहासा
 पाती परदेशी की
 भाग रहे हैं लोग सभी
 ये अपने पल
 हम अगस्त्य के वंशज
 संकलन में- गाँव 
                  में अलाव – दिन गाढ़े के आए
 प्रेमगीत – 
                  यह सम्मान
 गुच्छे भर अमलतास – जेठ आया
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                    पौ फटते ही पौ फटते ही कोहरे की चादर फेंक
 उठ बैठी हैं हड़बड़ा कर
 चारों दिशाएँ
 सहसा चहचहाने लगे हैं परिंदे
 कौवे -
 घर आँगन में
 करने लगे हैं काँव-काँव
 नीम के पेड़ पर अचानक,
 घरों के बाहर
 निकल आए हैं सब बच्चे
 रंभाने लगी हैं
 गोशाला में बँधी गायें
 दौड़ने लगी हैं सड़कें -
 इधर-उधर
 चारों तरफ़ बदहवास
 शायद छोड़ा है किसी ने
 पूरब की ओर
 जलता हुआ लाल गोला
 अथवा
 फेंका है चौखट पर
 सुबह-सुबह
 धधकता हुआ -
 एक ताज़ा अख़बार!
 
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