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                    गाँव और घर का 
                    भूगोल पगडंडी भटक गईरूठ गए पाहुन
 झूठ हुए सुबह-शाम-
 कागा के बोल,
 बदल गया गाँव और
 घर का भूगोल!
 खोए-खोए से हैं-ओसार और बरोठे
 लील गए कोहबर
 को कोठे दर कोठे,
 पर्दे में छिपे नहीं
 घर भर की पोल!
 अमराई फले और-फूले बँटवारे
 चौपालें चुगली में
 लेती चटखारे,
 पेड़ भी हवाओं में
 ज़हर रहे घोल!
 राजनीति 
                    गाँव-गाँवपर रही पसार
 वोटों में सिमट गई
 जीत और हार,
 हवा में परिंदे भी
 पंख रहे तोल!
 बदल गया गाँव औरघर का भूगोल!!
 २८ जनवरी २००८
                    
        
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