| 
                    ग़ज़ल रोज़ जीता हूँ 
                    रोज़ मरता हूँ जुल्म खुद अपने साथ करता हूँ।
 भीड़ में खो गया 
                    कहीं शायद अपना चेहरा तलाश करता हूँ।
 मैं ही मुल्ज़िम 
                    हूँ मैं ही मुंसिफ हूँइसलिए फैसले से डरता हूँ।
 सामना हो तो सर 
                    झुका लूँगापीठ पीछे तो मैं मुकरता हूँ।
 वक्त भी किस तरह 
                    मेहरबाँ है न तो हँसता न आह भरता हूँ।
 गुनगुनाये नदी 
                    ख़यालों की राह से उसकी जब गुज़रता हूँ।
 अपने पाँवों में 
                    बाँध कर मंज़िलमैं सफ़र यों तमाम करता हूँ।
 |