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                    पाती परदेशी की पाती परदेशी की 
                    पहुँचे,गाँव सभी के घर परिवार
 बड़े बुजुर्गों को पालागन,
 छोटों को जी भर कर प्यार!
 दिन भर भूला 
                    फिरता भूल भुलैया में
 जादुई शहर की
 गहराते ही रात सताती-
 याद मखमली-
 बिछुड़े घर की,
 बूढ़ा पुश्तैनी घर जैसे -
 पीछे से हो रहा पुकार!
 काश बुढ़ापे में 
                    बन पाताबापू के हाथों की लकड़ी
 शायद मेरे ही गम़ में -
 गल कर अम्मा ने
 खटिया पकड़ी
 भर न सका कुछ
 कर न सका कुछ
 मन करता है हाहाकार!
 करवट बदल रही 
                    रातों में आँखें नम हो
 और उनींदी
 सुधियों से -
 छनकर आती जब
 लोरी गाती प्यारी दीदी,
 चुका न पाया
 रिन राखी का
 ऐसे बीरन को धिक्कार!
 भैया मुझे-माफ़ कर देना
 बाँट सका मैं
 बोझ न घर का
 अपने दुख दर्दों में खोकर
 हो करके रह गया
 शहर का
 याद आ रही
 अमियाँ के हित
 भौजी की मीठी मनुहार!
 तुम ननकऊ!शहर मत जाना
 बची खुची आशा तुम सब की
 अपना गाँव गिराँव सगा है
 यह शहरी दुनिया-
 मतलब की,
 तुम हलछठ हो
 तुम्हीं सकट
 तुम माँ के सब त्योहार!
 भीड़ भरे मेले 
                    में मैं संगी साथी से
 पिछड़ गया हूँ
 रोज़ी रोटी के चक्कर में
 मैं अपनों से
 बिछुड़ गया हूँ
 गुहराता हो जैसे पीछे
 मेरा कोई लंगोटिया यार!
 बचपन बीती 
                    तारीख़ों से अब तक -
 पानी बहुत बह गया
 शंख सीपियाँ
 सुधियों की हैं
 कटा फटा तटबंध रह गया,
 वह सपनों का
 गाँव हो गया
 बटवारों में बंटाधार!
 पाती परदेशी की पहुँचे
 गाँव, सभी के घर परिवार!
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