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अनुभूति में रविशंकर की रचनाएँ —

नए गीत-
अनुवाद हुई ज़िंदगी
एक विमूढ़ सदी
खो गई आशा
गाँव और घर का भूगोल
जल रहा है मन
बीते दिन खोए दिन
हम शब्दों के सौदागर हैं

अंजुमन में-
ग़ज़ल

कविताओं में
इस अंधड़ में 

पौ फटते ही

गीतों में-
एक अदद भूल
गहराता है एक कुहासा
पाती परदेशी की
भाग रहे हैं लोग सभी
ये अपने पल
हम अगस्त्य के वंशज

संकलन में- 
गाँव में अलाव – दिन गाढ़े के आए 
प्रेमगीत – यह सम्मान
गुच्छे भर अमलतास – जेठ आया

 

जल रहा है मन

जल रहा है मन
धधकती आग जैसा
और काया जल रही है मोम जैसी

एक पग चलकर
गिनीपिग से ठिठकते
और आहट पर
पलटते दो कदम
रौशनी में चौंधियाती
आँख लेकर
कब तक जिएँगे
और चलने का वहम
एक नश्वर देह में कैसे सँभाले
आत्मा जो मिली
शाश्वत व्योम जैसी

संहिताएँ ख़ाक हैं
इतिहास की अब
वर्जनाएँ बँध गई हैं
पाँव में
जुए को ही मानकर के महाभारत
रोज़ गीता को
लगाते दाँव में
गले के कफ में फँसी
दम तोड़ती है
एक अक्षर ब्रह्म की

ध्वनि ओम जैसी
मुट्ठियाँ तनकर
हवा में टँक गई हैं
और नीचे पैर
दलदल में फँसे हैं
बाँटते सबको
सुबह शुभकामनाएँ
शाम होते
हाथ लगते हादसे हैं
दिन, महीने, साल-
मनमाना हुए हैं
जी रहे हम एक आयु
विलोम जैसी

२८ जनवरी २००८

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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