हाथ में
बंदूक लेकर
आ गया आतंक!काँपता बाज़ार
थर्राते हैं चौराहे
स्वप्न-पक्षी के
परों को अब कोई बाँधे
लो, खुले आकाश पर
गहरा गया आतंक!
आज रिश्ते काँच की
दीवार से लड़ते
देहरी पर नई कीलें
ठोंककर हँसते
सुर्ख आँखों पर उतरकर
छा गया आतंक!
सभ्यता विश्वास के घऱ
हो गई शैतान
सत्य के नीचे खुली है
झूठ की दूकान
रक्त-सिंचित पाँव धर
बौरा गया आतंक!
--डॉ. ओमप्रकाश सिंह |