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होली है!!

 

पिचकारी रस गंध की


पिचकारी रस गंध की फागुन सौ गुन धार¸
प्रीत  तरंगों सी  हुई बौरा  गई  बयार।

भीगी रंग रस गंध में ये  फगुनाई नार,  
नहीं संभाले संभलता अब चूनर का भार।

पनघट प्रश्न उछालता बिंदिया करे सवाल¸
इस कंचन सी देह पर किसने मली गुलाल। 

फूल कपोलों  से हुए मधुमासी यह प्रात¸
देह गागरी रस भरी नयन हुए जलजात। 

गंध  सुहानी दे गया यह मौसम चुपचाप¸
अनजाने ही लग गई मन पर गहरी छाप।

महुआ टपके  बोल में  चितवन  हुई शराब¸
अवगुंठन को देख कर पागल हुआ गुलाब। 

आखर आखर भर गए फिर भी कागद शेष¸
उतर गया फिर हाशिये जीवन  का अवशेष।

१ मार्च २०१०

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