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खत लिखा है
इन बरसते बादलों के गाँव से
नीम पीपल की
सुनहली धूप छनती छाँव से।
सच कहूँ, कैसे कहूँ
इस भोर का रस बोरता
दूध में मिश्री मिलाकर
शहद कोई घोलता
बात कुछ तुमसे करूँ
ऐसा लगा है।
गीत-गुंजित द्रुम-लताएँ
घोंसलों में लोरियाँ
नृत्य पर ठुमके लगातीं
तितलियों की छोरियाँ
कल हुई सोहर लता की
आज गाने को बधाई
भीड़ भौरों की जुड़ी
ज्यों किन्नरों की टोल आई
गाँव का पुजता हुआ
जलवा दिखा है।
गंध ने निर्बंध होकर
रस उलीचा- रंग उलीचा
हो गए सतरंग चूनर-
घास का हरियल गलीचा
और मैं, सरबोर-सा
भीगा हुआ, डूबा हुआ
देखता हूँ- आदमी के प्यार का
उड़ता धुआ
कौन अपना है पराया है,
सगा है।
तार रिश्तों के- उलझ कर-
टूटते बिखरे हुए
सूखती संवेदनाएँ
सोच के अंधे कुएँ
काश- दो पल प्रकृति के
हम साथ जी पाएँ कभी
ज़िंदगी के रस कलश
दो घूँट, पा पाएँ कभी,
पर, हमारा फलसफा ही
भदरंगा है। --यतीन्द्रनाथ राही |