धुँए और धूल में आया
गाँव को भूल मैं आया
तरल नयनों की पुतली में
फूल तीसी के तिरते हैं
फूले तोड़िए के खेत-
तरल सुधियों में घिरते हैं
मुझे बिछुड़े हुए तुमसे
यूँ ही बीत गए बरसों
गवाँया बहुत,कम पाया
लगा -जीना नहीं आया
खोया नगर के बीहड़ में
मैं मृगछौने -सा पागल
खोई है उम्र वासन्ती
हुए हैं पाँव भी घायल
बचपन की सहेली-सी
लगी है आज भी सरसों
तपे माथे को सहलाकर
मुझे सीवान यूँ बोले -
उदासी की ये भारी -
पाग क्यों पहने हुए आए ?
चने के फूलों से लकदक
खेत तुमको नहीं भाए ?
कोयल के साथ तुम गाओ
पास जो, बाँट दो हरसो
झूम लो तितलियों जैसे
भौंर-गुंजार -से बरसो
--रामेश्वर काम्बोज
हिमांशु |