एक
बसंत की लो हुई भोर
मौसम ने फिर थामी डोर
नन्ही कलियाँ अकुलाई
फिर बही फागुनी पुरवाई
चहके पंछी डाली डाली
फिर झूमी सरसों की बाली
उम्मीदों के खिले गुलाब
भंवरों के फिर जागे खवाब
आशाओं का चमका तारा
धरती से नीले अम्बर तक
प्रकृति की अरुणिमा तक
बसंत करते हैं हम
स्वागत तुम्हारा
दो
हवा चली
खुशबू महकी
फूलों ने
बुने खवाब
खिलते टेसू
पलाश के साथ
गुलाब पर
तितली चहकी
लगता है
बसंत आ गया
--डॉ सरस्वती माथुर
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