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बसंत में

 

 

खिले कँवल से, लदे ताल पर,
मँडराता मधुकर मधु का लोभी.
गुँजित पुरवाई, बहती प्रतिक्षण
चपल लहर, हँस, सँग सँग,
हो ली !
एक बदली ने झुक कर पूछा,
"ओ, मधुकर, तू ,
गुनगुन क्या गाये?
"छपक छप -
मार कुलाँचे, मछलियाँ,
कँवल पत्र मेँ,
छिप छिप जायें !
"हँसा मधुप, रस का वो लोभी,
बोला,
"कर दो, छाया, बदली रानी !
मैँ भी छिप जाऊँ,
कँवल जाल में,
प्यासे पर कर दो ये, मेहरबानी !"
" रे धूर्त भ्रमर,
तू रस का लोभी --
फूल फूल मँडराता निस दिन,
माँग रहा क्योँ मुझसे , छाया ?
गरज रहे घन -
ना मैं तेरी सहेली!"

टप, टप, बूँदों ने
बाग ताल, उपवन पर,
तृण पर, बन पर,
धरती के कण क़ण पर,
अमृत रस बरसाया -
निज कोष लुटाया !

अब लो, बरखा आई,
हरितमा छाई !
आज कँवल मेँ कैद
मकरंद की, सुन लो
प्रणय-पाश मेँ बँधकर,
हो गई, सगाई !!

--लावण्या शाह

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