पगलाई-सी हवा
फागुन मन के
खोल किवाड़े नाग धरे
धुले-धुले उजले
आँचल में दाग धरे!
कथनी खोज रही कुटिया
फिर करनी की
इंद्रधनुष-सी देह
पूनमी रजनी की
मौसम के कपोल
जब पछुआ सहलाती
मत पूछो बातें
वासंती टहनी की
पगलाई-सी हवा
बिखेर रही अलकें
कण-कण, तृण-तृण में
अतुलित अनुराग भरे!
डोली चढ़कर धूप
चली गोरी-गोरी
गीत गुनगुने गाती
कर उर की चोरी
शीत खेलता
आँख-मिचौली अब ऋतु से
शिथिल नदी लहरों को
सुना रही लोरी
हाथ छुड़ाते मन से
लज्जा के बंधन
मतवाले मधुपों के
अधर पराग झरे!
अधर चढ़ी रंगों की
आज मेघ माला
दृग लगते सर्वस्व
होम के मखशाला,
महक उठी महुए से
चंपा की क्यारी
छलक उठा पलकों से
फिर रस का प्याला
वृद्धों के मन तक
कुछ ऐसे रंग चढ़े
जर्जर तन ने भी
यौवन के स्वांग भरे!
१५ फरवरी २०१० |