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ऋतु वसन्त तुम आओ ना

 

 

ऋतु वसन्त तुम आओ ना
वासन्ती रंग बिखराओ ना
उजड़ रही आमों की बगिया
बौर नये महकाओ ना
सूनी वन -उपवन की डालें
कोयल को बुलवाओ ना।
नूतन गीत सुनाओ ना,
ओ वसन्त तुम आओ ना

ऊँचे -ऊँचे महलों में,
देखो जाम छ्लकते हैं
कहीं अँधेरी झोपड़ियों में
दुधमुँहे रोज बिलखते हैं
कुटिया के बुझते दीपक को , बनकर तेल जलाओ ना
भूखी माँ के आँचल में तुम, दूध की धार बहाओ ना
प्रिय वसन्त तुम आओ ना

कोई धोता जूठे बर्तन,
कोई कूड़ा बीन रहा।
पेट की आग मिटाने को,
रोटी कोई छीन रहा
काम पे जाते बच्चे के, हाथों में किताब थमाओ ना
घना अँधेरा छाया है, तुम ज्ञान के दीप जलाओ ना
ॠतु वसंत तुम आओ ना

भटक रहा अपनी मंजिल से,
मतवाला युवा नशे में गुम है
देख पिता की फट रही छाती,
माँ की आँखें हुईं नम है
बिखर रहे सपने घर-घर के, फ़िर से उन्हें सजाओ ना…
बहुत उदास हैं सारे आँगन ,तुम खुशबू बन जाओ ना
प्रिय वसन्त तुम आओ ना…

पीली चूनर से सरसों ने
धरती यह सजाई है
पीले पात झर चुके तरु के
हर कोंपल मुस्काई है
आओ कली बन मानव मन में, प्रेम के फ़ूल खिलाओ ना
त्रिविध बयार बहाओ ना,ॠतु वसंत तुम आओ ना…
प्रिय वसन्त तुम आओ ना…

--कमला निखुर्पा

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