| ज़िंदगी जो सुलगता है उसे चुपचाप बुझाना है,ज़िंदगी तेरे रंग में रंग जाना है।
 गर पढ़कर कोई सहर का दिलासा दे,जला के हाथ लकीरों को मिटाना है।
 पोंछना है धुँधले ख़्वाबों की तस्वीर,कोरी ही सही, हक़ीक़त से दीवार सजाना है।
 गर लड़ना ही है तो खाली क्यों उतरें?अपनी तरकश को ज़ख्मों का ख़ज़ाना है।
 २ अक्तूबर २००४ |