कुछ रुक लो
कुछ रुक लो
सुन लो,
कुछ कह लो!
ओ सागर की चंचल लहरों!
माना, तुम असीम की धड़कन
नयनों की
अति चंचल चितवन
प्रतिपल उठती-गिरती
पलकें
पवन खेलती
श्यामल अलकें
मायाविन,
हे इंद्रजालिके
कुछ तो ठहरा!
सागर से
भ्रम पर इतराना
पल-पल कूलों से टकराना
झाग उगलती
मुक्त वासना
बाँहों में आकाश बाँधना
क्रूर काल के हाथ डोर है
बनी पताका
मत यों फहरो!
क्षणभंगुर
जीवन की गति है
अथ के साथ
लिखी भी इति है
कुछ ऐसा तो
लिख कर जाएँ
कल के लिए
गीत बन जाएँ
पहले ढको अतल गहराई
फिर,
तटबंधों पर
आ घहरो!
९ जून २००८
|