चलो चल दें
चलों! चल दें
कहीं शायद
हमारा द्वार मिल जाए।
ग़ज़ब की आँधियाँ हैं
गगन से बारूद झरता है
दिशाएँ
भाँप कर चुप हैं
समय का कदम डरता है
किसे मालूम
अपनी आस्तीनें ही
हमें डस लें,
हमारी फूल मालाएँ
बनें फंदे
हमें कस लें
दहकती आग से शायद
कोई कुंदन निकल आए।
चमन को बेचकर
जो खा रहे हैं
बागवाँ तो हैं
वतन को,
तोड़ते, जो बाँटते हैं
रहनुमा तो हैं
हमी ने प्यार खोए
दर्द रोपे
नफ़रते बोईं
हज़ारों बार हम पर
आदमीयत तड़प कर रोई
कहीं इन दलदलों के बीच
कोई कमल खिल जाए।
९ जून २००८
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