वसंती हवा

आए हैं पाहुन वसंत के
- यतीन्द्र राही

 

आए हैं,
पाहुन वसंत के
बगिया महकी है
बौराए हैं आम कुंज में कोयल कुहकी है।

बातों ही बातों में तुमने-
पृष्ठ पलट डाले
खुले चित्र-वातायन कितने
विविध रंग वाले
जिनमें हमने कभी लिखी थीं-
शहदीली रातें
कचनारों से पंख खोलकर
उड़ने की बातें
यादों के अंगार डाल टेसू भी दहकी है।

फूले सुर्ख सेमली दिन थे
महुआ भुनसारे
ऋतुपर्णा के अंग-अंग,
छवि-निखरे अनियारे
सरसों लाती मदनोत्सव के
जब पीले चावल
हो उठती वाचाल चूड़ियाँ
उद्दीपित पायल
कागा आया,
फिर मुंडेर पर चिड़िया चहकी है।

अंग-अंग निचुड़े रंगों से,
रस-धारों के दिन
उलझन-रीझ-खीझ-तकरारें
मनुहारों के दिन
अब कगार के वृक्ष
और ये-
लहरें मदमाती
टाँग खींचने दौड़ पड़ी है
नदिया उफनाती
दिन, हिरना हो गए निठुर पुरवैया बहकी है।

९ फरवरी २००९

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter