दूर देश की चित्र सारिका
दूर देश की,
चित्र सारिका में बैठा
एकांत
याद कर रहा हूँ
गाँवों की-
गलियों वाले दिन।
आँगन-आँगन गौरेया थी।
मुडगेली पर कागा
जब मुर्गे ने बाँग लगाई
तभी सवेरा जागा
छप्पर-छानी पर
कपोत के
जोड़े मुक्त विहरते
द्वार,
नीम की डाल-डाल पर
बैठे मोर कुहराते
चोपालों पर ढोला-मारू
आल्हा गाते दिन।
रामायण के पाठ
कथाएँ
किस्से और कहानी
हँसी कहकहे रात्रि जागरण
बातें सभी पुरानी
शहद घुले नाते-रिश्ते थे
गंगा की पावनता
मन थे खुली किताब
आचरण में
स्नेहिल व्यापकता
वृंदावन का रूप सजाते
रहस रचाते दिन
यहाँ बेशकीमत दुनिया है
पर सब नकली-नकली
हवा आग पानी धरती तक
बचा न कुछ भी असली
आदम के पाँवों में पहिए
पाँखों, बोझिल सपने
बिछा रहा है आसमान में
धरती के कुछ चिंदने
शायद
तरस-तरस रह जाएँ
दिखे न अब जीवन में
रुनझुन चलत रेनु तन मंडित
मुख दधिराते दिन!
९ जून २००८
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