आबरू घर की
अब नहीं हमसे सँभलती
आबरू घर की-
फटी दीवार
दरकी छत
स्तंभ हिलते हैं
दूर दर्शक से खड़े-
हम हाथ मलते हैं
खिड़कियों पर आँधियों की-
दस्तकें सुनकर
साँस रोके ख़ौफ़ से
बैठे हुए छुप कर
फूटते हैं बम
दहलती आबरू घर की।
बात करने के तरीके,
क्या हुए इनके,
आचरण के ये सलीके
क्या हुए इनके?
बिक रहे हैं,
कीमतों पर नाज़ करते हैं
रोज़ नंगे नाच के-
इतिहास रचते हैं
जूतियों में उछलती हैं
आबरू घर की।
नियति में
खोटे-खरे सब एक जैसे हैं
करम इनके
रामजाने कैसे-कैसे हैं
धर्म के रथ
स्वार्थ के पथ
चाल शैतानी
देश-हित सेवा समर्पण
शब्द बेमानी
हाथ से बबस
फिसलती आबरू घर की
१८ मई २००९
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