दिन गए
रातें गईं
दिन गए
रातें गईं, बातें गईं
आँख से-
घनघोर बरसातें गईं।
तृप्ति पनघट घाट तक
पहुँचे कहाँ
घर कहीं औघट पड़े रीते रहे
जीत कर भी,
मैं सदा हारा रहा
हार कर भी
तुम सदा जीते रहे
थीं तुम्हारे हाथ
केवल बाज़ियाँ
पर हमारे हाथ
राह-मातें गई।
ओठ काँपे बात अटकी
मौन था
छिप रहा था जो पलक में
कौन था?
दूर क्षितिजों पर
उभरते रंग नए
इंद्रधनुषी रूप अनुपम रच गए
आशिषें थीं,
फूल थे, सम्मान थे
पर हमारे भाग्य तो घातें गईं।
तरु-लता-पल्लव
मुरझ कर रह गए
गीत निर्झर
द्वार तक आ
बह गए।
रोक पाया मैं न
बाहें सल हुईं
याचनाएँ,
आज सब निष्फल हुईं
आँजुरी में
बाँधते मृगजल रहे
दूर हर पल दूर
ख़ैरातें गईं
९ जून २००८
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