आँख में
आँख में
पकने लगा है मोतिया
पास आते जा रहे हैं धुंधलके।
नाव की फूटी तली है
और हैं चप्पू पुराने
दूर उन ढहते तटों तक
कौन पहुँचे
राम जाने
धार के संग-संग चले थे
या कभी विपरीत भी तो
जब जहाँ तुमने पुकारा
हम उपस्थित थे
वहीं तो
हाथ धो पीछे पड़ी
अब आँधियाँ
तो हमारी मुठ्ठियों में भी तहलके।
अंग, ज़्यादा ही बढ़े
या आवरण छोटे हुए
या हमारी सोच के ही
दायरे खोटे हुए
जी रहे हैं,
मान्यताओं की
सड़ी रद्दी सँभाले
छिद्र केवल खोजते हैं
हम यहाँ
बैठे निठाले
आईनों को,
सच दिखाने के लिए
नाचते हैं
पाँव में बाँधे झुँझलके।
९ जून २००८
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