हमारे रेत के घर
बड़े इन राजमहलों से
हमारे रेत के घर थे।
अभी भी,
याद में ताज़ा
तुम्हारी संदली अलकें
बिना बोले,
झुकी पुरनम
चहकती सुरमयी पलकें
ग़ज़ब की बात थी
हम तुम
नदी की धार बहते थे,
कभी लहरिल
कभी फेनिल
समंदर पार करते थे
हमीं नाविक, हमी नौका
हमी पतवार-लंगर थे।
क्षितिज को बाँध लेते थे
सितारे अंजुरी भर कर
उड़े थे दूर हम भी
पंख में-
आकाश को घर कर
कभी महकी रजनीगंधा
कभी दहके पलाशों में
कभी उतरे
हमारे रथ
झमकते अमलताशों में
पहाड़ों के
कद्दारों के
हमीं से गुंजारित स्वर थे।
मगर अब
उम्र की दहलीज़ पर
गुमसुम नहीं भाता
किसी ठहराव से
हर्गिज़ नहीं है
प्यार का नाता
बिखरती हैं पंखुरियाँ,
गंध तो,
भरकर बिखरने दो
हमारे गीत में
फिर लय-विलय के-
स्वर सँवरने दो
भले हों,
डगमगाते पग
इरादे तो अनश्वर थे।
१८ मई २००९
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