हो गया है प्राण-कोकिल
हो गया है प्राण-कोकिल
देह-वासंती हुई।
द्वार पर मंगल कलश है
आँगना-रांगोलिका
हाथ-मेंहदी
पाँव-जावक
रत प्रतीक्षा गोपिका
हंस-पाती बाँचती-सी
पुलक-दमयंती हुई।
यों हवा छूकर चली
संकेत में कुछ कह गई
फूटकर रस निर्झरी-सी
छल-छलाकर बह गई
कान में फिर सप्तस्वर
बजने लगे,
घुलने लगे
आवरण सारे सहज
हटने लगे
खुलने लगे
पर न फूटा मौन
ऐसी बात लजवंती हुई
और,
तुम आए
मलय की
शांत शीतल गंध से
प्राण में गहरे उतरते
राग रंजित छंद से
लय-विलय
होते गए हम
द्वैत से अद्वैत में
स्वर्ग अपने रच लिए थे
पत्थरों में
रेत में
भोर-रूपा
साँझ-सोना
रात-मधुवंती हुई।
९ जून २००८
|