अनुभूति में राजेन्द्र वर्मा की
रचनाएँ-
नयी रचनाओं में-
आत्मश्लाघा से लबालब
दृष्टि से ओझल रहा
प्रेम-ही-प्रेम
पौध रोपी
ये जो वाटिकाएँ बँटी हुईं
नये दोहों
में-
दिखे
सूर्य गतिमान
अंजुमन
में-
प्रार्थना ही प्रार्थना
प्रेम का पुष्प
माँ गुनगुनाती है
सत्य निष्ठा के सतत अभ्यास
हम निकटतम हुए
गीतों में-
आँसुओं का कौन ग्राहक
करें तो क्या करें
कागज की नाव
कैसा यह जीवन
जादूगरनी
दिल्ली का ढब
बेच रहा हूँ चने कुरमुरे
बैताल
मेरे बस का नहीं
रौशन बहुत माहौल
सच की कौन सुने
दोहों
में-
खनक उठी तलवार |
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ये जो वाटिकाएँ बँटी हुईं
ये जो
वाटिकाएँ बँटी हुईं,
उन्हें क्यों न एक-ही मान लें!
जो भी रंगो-ख़ुशबू बची हुई,
उसे हम बचाने की ठान लें।
जो हों मोतियों से भरे नयन,
तो हँसी भी अधरों पे हो सजी
जो भी ऐसी ज़िन्दगी जी रहा,
उसे बन्धु अपना-ही मान लें।
ज्यों-ही रात पैर पसारती,
त्यों-ही साथ छाया भी छोडती
तो है कौन अपना सगा यहाँ,
आओ, मोह छोड़के जान लें।
ये हयात है किसी जंग-सी,
कोई राह बचने की है नहीं
मिले जीत या कि शिकस्त हो,
चलो अपने हाथ कमान लें।
यहाँ जो भी आया फ़ना हुआ,
वो अमीर हो कि फ़क़ीर हो
हमें दुनिया जिसकी मिसाल दे,
कोई उसका कोई निशान लें।
ये जो साँस मुट्ठी की रेत-सी,
नहीं क्षण को उसका रुके क्षरण
ये तो तय कि कल होगी रिक्त यह,
क्यों न कल की आज-ही जान लें!
देखो फूल कैसा खिला हुआ,
ये लुटा रहा है सुगन्धि भी
ये सुगन्धि तिरती रहे सदा,
आओ, इसका कर ज़रा ध्यान लें।
१ दिसंबर
२०१८
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