अनुभूति में राजेन्द्र वर्मा की
रचनाएँ- अंजुमन
में-
प्रार्थना ही प्रार्थना
प्रेम का पुष्प
माँ गुनगुनाती है
सत्य निष्ठा के सतत अभ्यास
हम निकटतम हुए
गीतों में-
आँसुओं का कौन ग्राहक
करें तो क्या करें
दिल्ली का ढब
बेच रहा हूँ चने कुरमुरे
बैताल
रौशन बहुत माहौल
दोहों
में-
खनक उठी तलवार |
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माँ गुनगुनाती है
कभी लोरी, कभी कजली, कभी निर्गुण सुनाती है
कभी एकांत में होती है माँ, तो गुनगुनाती है।
भले ही खूबसूरत हो नहीं बेटा, पर उसकी माँ
बुरी नज़रों से बचने को उसे टीका लगाती है।
कोई सीखे, तो सीखे माँ से बच्चा पालने का गुर
कभी नखरे उठाती है, कभी चाँटा लगाती है।
ये माँ ही है जो रह जाती है बस, दो टूक रोटी पर
मगर बच्चों को अपने पेट-भर रोटी खिलाती है।
गया बेटा कमाने को, मगर लौटा नहीं अब तक
रहे राजी-खुशी से वह, यही हर दिन मनाती है।
रहे पापा नहीं जब से, हुई माँ नौकरानी-सी
सभी की आँख से बचकर वो चुप आँसू बहाती है।
११ मई २०१५
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