पा गए कोई सुबह
पा गए कोई सुबह
कोई सुहानी शाम।
गीत सारे हो गए हैं
आस्था के नाम।
यह पसीना मुक्ति की
कहता कहानी है।
ज़िंदगी की यह अमिट
कोई निशानी है।
दर्द तो घुलता गया,
होता गया गुमनाम!
ग्रंथियाँ उलझी हुई
आँखों थमा पानी।
आदमी ने आदमी की
पीर कब जानी!
सभ्यता के हो गए
कितने नए आयाम!
मन नहीं बेचा कभी,
बेची नहीं है पीर।
हार जाती है नदी,
हारे नहीं हैं तीर।
लड़ रहे हैं हम स्वयं से
आखिरी संग्राम!
५ अप्रैल २०१० |