शरद प्रात का गीत
घोल कर मेंहदी उषा
धनवान सी आई अकेली।
मौन हो मन वाटिका की
बिन कहे रंग दी हथेली।
दृष्टि में तब खिल उठे जलजात कितने ही अचानक
सुरभि सी उड़ती हुई पल-पल किया गुंजार मैंने।
जब कलाधर की कलाएं
खूब विकसित हो रही थीं।
कल्पना की तूलिका से
मैं दिशाएं रंग रही थी।
इन छलकती, ऊंघती-सी अनमनी इन प्यालियों में
प्राण अपने भी मिलाकर पा लिया संसार मैंने।
कह न पाए इस धरा के
होंठ जो सच्ची कहानी।
या विजन में इन ऋचाओं की
कथा कोई पुरानी।
साधना तप में तपे जब भोर के स्वर सुन रही थी
तब कहीं मन खोलने का पा लिया अधिकार मैंने।
फिर उतरते और चढ़ते
व्योम से ये ज्योति निर्झर।
एक दर्पण सामने कर
भाव झरते नेह अंतर।
जो लहर को खिलखिला देता पवन का एक झोंका
मुक्त होकर ले लिया उस मुक्ति का आधार मैंने।
१६ दिसंबर २००४ |