आ गया है मन बदलना
प्रीत जिस दिन से लगी पलने पलक की छांव लेकर
इस निगोड़ी धूप को भी आ गया है, मन बदलना
हाँ, मृगी के नयन में आने
लगी अनुभूतियां हैं
मौन प्राणों को जकड़ने
आ गई सब प्रीतियां हैं
इस तरह से पांव ठिठके, डगर पर जो परिचिता थी
घंुघरूओं के साथ पायल चाहती है, ज्यों मचलना
कौन सा जादू हुआ जो
छा गया सारे गगन में
चेतना के साथ सब कुछ
भूल बैठी हूँ, सपन में
रेत में जलते रहे हैं पांव, यह किसको बताऊं
देखती ही रह गई मैं बर्फ का पर्वत पिघलना जब
अबूझी रह गई है
उम्र की शाश्वत पहेली
लग रहा पीड़ा रहेगी
अंत तक मेरी सहेली
रूप को इतना सजाया है कि वह लगता सगुण है
पर कठिन है पीर को अभिव्यक्त करना या उगलना
रंग बदले हैं, सुहानी गंध
भी पागल हुई है
धूप नाचेगी इसी से जिंद़गी
मादल हुई है
मैं नदी के तीर पर कुछ सोचकर ही आ गई हूँ
देखकर अवसर मुझे भी धार पर होगा बिछलना १६
दिसंबर २००४ |