मन अभी वैराग्य लेने
मन अभी वैराग्य लेने के लिए आतुर नहीं है
किंतु, मैं कुछ सोचकर ही एक चादर बुन रही हूँ।
पर्वतों पर एक स्वर मुझको
सुनाई दे गया था।
वह ललित पद था कि जो
मुझको बधाई दे गया था।
ये भवन-अट्टालिकाएं और मंदिर छोड़कर अब
छांव पाने के लिए अपनत्व का घर चुन रही हूँ।
छंद का पाहुन बना तब
गीत की गरिमा बढ़ी है।
शूल के संसार में ही
गंध की महिमा बढ़ी है।
हाँ, मुझे मालूम है, माटी कभी सोना बनेगी
इसलिए मैं देह को कंचन समझकर गुन रही हूँ।
मैं सुवासित ज्ञान से
होकर कभी चंदन बनूंगी।
अर्चना का दीप तुम बोलो कि
मैं वंदन बनूंगी।
कंठ की ज्वाला बुझे, मन को मिले हिम-कण सहज ही
इसलिए मैं सबद-साखी में बसा स्वर सुन रही हूँ।
१६ दिसंबर २००४ |