पानी लिख रही हूँ
एक परिचित जो यहाँ पिछले जनम में खो गया था
इस जनम में वह मिला उसकी कहानी लिख रही हूँ।
वह समंदर की कथाओं सा
रहा अब तक अधूरा।
गीत है जिसको न कर पाई
समय के साथ पूरा।
यह बहुत व्याकुल कि उसका कंठ सूखा जा रहा
इसलिए बनकर नदी मैं मीत, पानी लिख रही हूँ।
मोतियों-सा वह बिखरता है
कभी जैसे कि पारा।
वह किसी जलयान का है मीत
या कोई किनारा।
वह मुझे जिस हाट में यूं ही अचानक मिल गया था
कागज़ों पर भेट के क्षण की निशानी लिख रही हूँ।
द्वन्द्व से संवेदना की रोज़
वह करता सगाई।
वह स्वयं को दे रहा है
इस तरह नूतन बधाई।
अनवरत चलते हुए या सीढ़ियां चढ़ते हुए भी
मैं उसी के नाम पर सारी रवानी लिख रही हूँ।
एक मीठे दर्द-सा कुछ
इस तरह भाने लगा है।
वह हृदय की गूंज था
अब ओंठ पर आने लगा है।
वह अकिंचन किंतु, उसके दान की शैली अलग है
इसलिए अपने सृजन की राजधानी लिख रही हूँ।
१६ दिसंबर २००४ |