बेटियाँ
दो कुल की लाज लेकर पलती हैं बेटियाँ
फिर क्यों किसी की आँख में खलती हैं बेटियाँ
गहराइयों से गहरी
हैं ईश्वरीय कृतियाँ
घर-घर की आबरू हैं
घर की ज्योतियाँ
हर द्वार देहरी की इज़्जत हैं बेटियाँ
झरनों सी झरझराती
कोयल सी कुहुकती हैं
उपवन की डालियों सी
ऋतुओं में महकती हैं
फूलों से मुस्कुराती मकरंद बेटियाँ
हिमगिरि सा ऊँचा मस्तक
विनम्र विंध्य सी
भारत सा मन विशाल है
दानी दधीचि सी
कितनी सुघड़ सलोनी भोली हैं बेटियाँ
मंदिर की घंटियों सी
मस्जिद की हैं अज़ान
गुरूग्रंथ जैसी पावन
गीता हैं और कुरान
धर्मों की हैं आवाज़ तो हैं धर्म बेटियाँ
नदियों सी दिशाओं में
बढ़ती ही जा रही
राहों में पत्थरों से
लड़ती ही जा रही
सागर को सौंप जीवन खो जाती बेटियाँ
६ अप्रैल २००९ |