एक पर्वत
एक पर्वत आँख में है,
काँपता है बहुत ही दिन।
शून्य में उठते हुए ये हाथ।
केवल
थरथराहट साथ।
बोझ बढ़ता, जा रहा है
साँस के ये अंक
गिन-गिन।
काँपता है बहुत ही दिन।
रीति युग ने नई सीखी-
फूल में है गंध तीखी।
गुलाबों का क्या ठिकाना
सरस
प्राणों के परस बिन!
काँपता है
बहुत ही दिन।
सृष्टि का यह आचरण है।
ऊँघता वातावरण है।
सुलगता विश्वास सारा
आँसुओं में
छिपा अनगिन।
काँपता है बहुत ही दिन।
५ अप्रैल २०१०
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